धरती का बढ़ता तापमान ना सिर्फ जलवायु के साथ छेड़-छाड़ कर रहा है बल्कि इसका सीधा-सीधा असर हमारी जेब पर भी पड़ रहा है. चौंकिए मत क्योंकि ये सच है कि धरती का बढ़ता तापमान आपको हर दिन और ग़रीब बनाता जा रहा है. इसको ऐसे समझना होगा कि दुनिया भर में मौसम का मिज़ाज बदलने का सीधा असर खाद्यान उत्पादन पर पड़ता है. क्योंकि जब मौसम फसलों के लिए प्रतिकूल होता है तो उनका उत्पादन घट जाता है. जब उत्पादन कम होता है तो सप्लाई भी कम हो जाती है जबकि डिमांड बढ़ती रहती है. डिमांड और सप्लाई का ये उलटा अनुपात सीधे तौर पर बढ़ती महंगाई की शक्ल में उपभोक्ताओं की जेब पर हमला करता है. बढ़ती गर्मी पर क़ाबू पाने का उपाय है कार्बन का उत्सर्जन कम करना. मगर कार्बन उत्सर्जन को कम करने के जो उपाय हैं वो इतने ख़र्चीले हैं कि किसी भी देश की GDP को बर्बाद कर सकते हैं.
एक बात तो तय है कि जलवायु परिवर्तन दुनिया की अर्थव्यवस्था के लिए बड़ा खतरा है. इसे अगर आंकड़ों के ज़रिए समझेंगे तो आपकी घबराहट और बढ़ने वाली है. एक रिसर्च के मुताबिक अगर धरती का तापमान 1 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ता है तो दुनिया भर की GDP में कुल 12 फीसदी की गिरावट होगी जो अनुमान से 6 गुना ज्यादा है. हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री एड्रियन बिलाल और नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्री डिएगो कांज़िग ने अपने एक शोध में कहा कि विश्व की अर्थव्यवस्था पर जलवायु परिवर्तन का बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है. उनके मुताबिक इस सेंचुरी के अंत तक यानि साल 2100 तक तापमान में होने वाली 3 फीसदी की बढ़ोतरी वैश्विक अर्थव्यवस्था को 50 फीसदी से ज्यादा नुकसान पहुंचा सकती है. अगर सदी के अंत तक वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड तक सीमित रहता है, फिर भी दुनिया की GDP लगभग 15 फीसदी नीचे गिर सकती है. यानि ये कहना ग़लत नहीं होगा कि ये बढ़ता तापमान सीधे तौर पर आपकी जेब जलाने की तैयारी कर चुका है.
अर्थशास्त्री एड्रियन बिलाल का ये भी कहना है कि दुनिया का हर देश आर्थिक विकास की राह पर है लेकिन इस विकास के क्रम में हमें जलवायु परिवर्तन के मानकों पर भी गहरी नज़र रखनी होगी. क्योंकि अगर इसी रफ़्तार से जलवायु परिवर्तन होता रहा तो आर्थिक विकास बेहतर होने के बजाए कमजोर पड़ सकता है. नतीजा, सदी के अंत तक लोग 50% और गरीब हो सकते हैं. चलिए एक बार हम बढ़ते वैश्विक तापमान के अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर को छोड़ भी दें तो उसके बिना ही पिछले 50 साल में हमारी पर्चेंसिंग पावर 37 फ़ीसदी कम हुई है. तो सोचिए, ऐसे में अगर दुनिया में जलवायु संकट भी बढ़ता है तब जो बर्बादी होगी वो किसी युद्ध के समान होगी. अगर हम शुद्ध GDP के संदर्भ में बात करें तो एक्सपर्ट्स के मुताबिक ग्लोबल वॉर्मिंग की मार किसी भी युद्ध जैसी ही होती है. यानि रूस और यूक्रेन जैसे देशों के बीच युद्ध होने से जो बर्बादी हो रही है, उससे कहीं ज़्यादा बर्बादी ग्लोबल वॉर्मिंग से हो रही है. फर्क बस इतना है कि युद्ध काल में होने वाला असर सीधे-सीधे दिखाई दे जाता है जबकि ग्लोबल वॉर्मिंग से जो तबाही मचती है उसका असर आने वाली कई पीढ़ियां देखती और झेलती हैं.
अब तक जलवायु परिवर्तन को लेकर जितने भी शोध हुए हैं, उनके मुकाबले अर्थशास्त्री एड्रियन बिलाल की इस नई रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन के चलते होने वाले आर्थिक नुकसान का अनुमान कहीं ज़्यादा है. अतिरिक्त कार्बन उत्सर्जन से होने वाले नुकसान पर अमेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी, EPA, का अनुमान 190 डॉलर प्रति टन का था. मगर एड्रियन बिलाल की रिपोर्ट में ये नुकसान 1,056 डॉलर प्रति टन बताया गया है. एक चौंकाने वाला तथ्य ये भी है कि जलवायु परिवर्तन से होने वाला ये नुकसान आर्थिक रूप से कमज़ोर देशों के मुक़ाबले अमेरिका जैसे अमीर देशों को ज़्यादा होगा. ऐसे में अमेरिका जैसे धनी देशों को अपने आर्थिक हित में हीट उत्सर्जन को कम करने के लिए कुछ और बड़े क़दम उठाने होंगे.
डेलावेयर विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट ‘लॉस एंड डैमेज टुडे: हाउ क्लाइमेट चेंज इज़ इम्पैक्टिंग आउटपुट एंड कैपिटल’ के मुताबिक साल 2022 में जलवायु परिवर्तन के चलते भारत की GDP को कुल 8 फीसदी का नुकसान झेलना पड़ा है. वैसे, जलवायु में हुए बदलावों का खामियाजा भारत को भी अलग-अलग रूपों में भुगतना पड़ रहा है. कहीं बाढ़, कहीं सूखा, तो कहीं तूफान. ऐसी चरम मौसमी घटनाओं का घटना आज-कल बेहद आम होता रहा है. लिहाज़ा भारत को भी अपनी अर्थव्यवस्था बचाने के लिए जलवायु परिवर्तन से जुड़े अपने हिस्से के प्रयासों को भी जल्द से जल्द अमल में लाना ही होगा.